
अरविंद केजरीवाल, संदीप दीक्षित, वीरेंद्र सचदेवा
दिल्ली का विधानसभा चुनाव इस बार कई मायने में अलग नजर आ रहा है. आम आदमी पार्टी लगातार चौथी बार सत्ता अपने नाम करने की कवायद में है तो बीजेपी दिल्ली में अपने 27 साल के सियासी वनवास को खत्म करने के लिए बेताब है. कांग्रेस का पूरा फोकस दिल्ली में अपनी खोई ही राजनीतिक जमीन को वापस पाने की है. इस तरह तीनों पार्टियां दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर अपनी-अपनी सियासी बिसात बिछाने में जुटी हैं, लेकिन दिल्ली की सत्ता का गेम सिर्फ पांच फीसदी वोटर शेयर पर टिका है. ऐसे में अगर कम अंतर वाली सीटों पर जरा सा भी खेला हुआ तो दिल्ली का सारा गेम ही बदल जाएगा?
बीजेपी भले ही दिल्ली की सत्ता से 27 सालों से बाहर हो, लेकिन उसका अपना वोट शेयर जस का तस बना हुआ है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी 50 फीसदी से भी ज्यादा वोट शेयर के साथ सत्ता पर एक दशक से काबिज है. दिल्ली में कांग्रेस का चुनाव दर चुनाव वोट शेयर घटा है और आम आदमी पार्टी का ग्राफ बढ़ता जा रहा. इस तरह कांग्रेस की जमीन पर ही आम आदमी पार्टी की इमारत खड़ी है. इस तरह कांग्रेस के प्रदर्शन पर ही आम आदमी पार्टी और बीजेपी की उम्मीदें टिकी हुई हैं. कांग्रेस अगर दिल्ली में अपना वोट शेयर बढ़ाने में कामयाब रहती है तो सत्ता की तस्वीर अलग ही होगी.
2013 से 2020 में वोट शेयर का समझें गेम
दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोट शेयर से ही सत्ता की दशा और दिशा तय होती है. आम आदमी पार्टी 2013 के विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 सीटें जीती थी. 2015 के चुनाव में 54.6 फीसदी वोट शेयर के साथ 67 सीटें जीतने में कामयाब रही. 2020 के चुनाव में 53.6 फीसदी वोट शेयर के साथ 62 सीटें आम आदमी पार्टी ने जीती थी. इस तरह 2013 से 2015 में 14 फीसदी वोट शेयर बढ़ने के साथ ही जबरदस्त इजाफा आम आदमी पार्टी की सीटों में हुआ था. 2015 से 2020 के चुनाव में एक फीसदी वोट शेयर कम होने से आम आदमी पार्टी की पांच सीटें कम हो गई थी.
वहीं, 2013 के चुनाव में बीजेपी 44.28 फीसदी वोटों के साथ 32 सीटें जीती थी. 2015 में बीजेपी ने 32.3 फीसदी वोट शेयर के साथ सिर्फ तीन सीटें ही जीत सकी जबकि 2020 में बीजेपी ने 38.51 फीसदी वोट शेयर के साथ 8 सीटें जीतने में कामयाब रही है. 2013 से 2015 में 12 फीसदी वोट शेयर कम होने से बीजेपी को 29 सीट का घाटा हुआ था जबकि 2015 की तुलना में 2020 में 6 फीसदी वोट शेयर बढ़ने से पांच सीटें का फायदा मिला था.
कांग्रेस 2013 में कांग्रेस को 11.5 फीसदी वोट मिले थे और 8 सीटें जीतने में कामयाब रही. 2015 में कांग्रेस 9.7 फीसदी वोट मिले और 2020 के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 4.26 फीसदी रहा. इन दोनों ही चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली. दिल्ली में कांग्रेस का 2013 के बाद से लगातार कमजोर हुई है और उसका अपना वोट शेयर घटता चला गया.
केजरीवाल से पहले कैसे रहा वोट शेयर
दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव 1993 में हुआ, जिसमें बीजेपी ने 47.82 फीसदी वोटों के साथ 49 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. कांग्रेस 34.48 फीसदी के साथ सिर्फ 14 सीटें ही जीत सकी थी. जनता दल 12.65 फीसदी वोटों के साथ 4 सीटें जीती थी और बसपा 1.88 फीसदी वोट हासिल किया था. 1998 में कांग्रेस 47.75 फीसदी वोटों के साथ 52 सीटें जीती थी तो बीजेपी 34 फीसदी वोटों के साथ 15 सीटें ही जीत सकी थी. जनता दल का वोट शेयर घट गया और बसपा का वोट बढ़ा.
2003 में कांग्रेस 48.1 फीसदी के साथ 47 सीटें जीती थी और बीजेपी 35.22 फीसदी वोट के सात 20 सीटें ही जीत सकी. बसपा को 5.7 फीसदी वोट मिले थे. 2008 में कांग्रेस 40.31 फीसदी वोट के साथ 43 सीटें जीती थी, बीजेपी 36.34 फीसदी वोटों के साथ 23 सीटें ही जीत सकी थी जबकि बसपा 14.05 फीसदी वोटों के साथ दो सीटें जीती थी. इस तरह से कांग्रेस 45 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल ही दिल्ली की सत्ता पर विराजमान रही तो बीजेपी का 40 फीसदी से कम वोट होने के चलते सत्ता का वनवास झेलना पड़ा.
45 फीसदी वोट पर ही मिलेगी दिल्ली की सत्ता
दिल्ली में 1993 के बाद के चुनाव नतीजों का आकलन और विश्वेषण करते हैं तो साफ पता चलता है कि 45 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने पर ही सत्ता हाथ आती है. बीजेपी चाहे 1993 में सत्ता पर काबिज रही हो तो उस समय उसे 45 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और चाहे कांग्रेस तीन बार सत्ता में रही तो उसे भी 45 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर रहा है. इस तरह आम आदमी पार्टी दिल्ली की सत्ता में रही तो उसे 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. 2013 में किसी भी पार्टी को वोट शेयर 45 फीसदी नहीं रहा था, जिसके चलते किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सियासी आधार जैसे-जैसे बढ़ा वैसे-वैसे कांग्रेस का राजनीतिक आधार सिमटता गया. कांग्रेस 47 फीसदी से घटकर साढ़े 4 फीसदी पर पहुंच गई तो बीजेपी दिल्ली में अपने सियासी आधार को 30 फीसदी के ऊपर रखने में कामयाब रही. बसपा का सियासी आधार पूरी तरह से खिसक गया और कांग्रेस का भी वोट पूरी तह से आम आदमी पार्टी में शिफ्ट हो गया है. बीजेपी के वोटबैंक से सिर्फ कुछ वोट ही खिसके हैं, लेकिन काफी हद तक अपने आधार को रोके रखा है. ऐसे में कांग्रेस के प्रदर्शन ही दिल्ली की सियासी गेम टिका हुआ है.
कांग्रेस के प्रदर्शन पर टिका सत्ता का खेल
कांग्रेस दिल्ली विधानकभा चुनाव में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने पर फोकस कर रही है. यही वजह है कि कांग्रेस बयानबाजी से लेकर मजबूत उम्मीदवार उतारने तक कहीं से भी पिछड़ना नहीं चाहती. कांग्रेस का पूरा फोकस अपने प्रदर्शन में इस बार सुधार करने पर है. यही वजह है कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव ने दिल्ली में ‘न्याय यात्रा’ निकाली. कांग्रेस नेता लगातार अरविंद केजरीवाल पर हमलावर हैं. वे आम आदमी पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर घेर रही है और उसे बीजेपी की मददगार बता रही है. कांग्रेस की इस रणनीति से आम आदमी पार्टी की चिंता बढ़ गई है. आम आदमी पार्टी को डर है कि कांग्रेस की वजह से बीजेपी विरोधी वोट बंट सकते हैं.
कम अंतर वाली सीटों पर क्या बिगड़ेगा गेम
इस बार आम आदमी पार्टी और बीजेपी उन सीटों पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं, जहां उन्हें पहले भारी समर्थन मिला था. साथ ही, वे उन सीटों पर भी ध्यान केंद्रित कर रही हैं जहां जीत का अंतर कम था. पिछले चुनाव में दिल्ली की 15 ऐसी सीटें थीं, जहां जीत का अंतर दस हजार से कम वोटों का था. 2015 के चुनाव में ऐसी केवल 6 सीटें थीं. 2020 में 26 सीटों पर जीत का अंतर 10,001 से 20000 वोटों के बीच था, जबकि 14 सीटों पर यह जीत-हार का अंतर 20001 से 30000 वोटों के बीच था. इसी तरह 15 सीटों पर जीतने वाले उम्मीदवार को अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 30000 से अधिक वोट मिले, और ये सभी सीटें आम आदमी पार्टी ने जीतीं.
कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद के साथ बीजेपी नेता मानते हैं कि पास उन सीटों पर भी नतीजे बदलने का अच्छा मौका है, जहां आम आदमी पार्टी पिछले चुनाव में बड़े अंतर से जीती थी. दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का वोटबैंक एक ही है, इसलिए कांग्रेस के वोट शेयर में सुधार होता है बीजेपी के जीत की संभावनाएं सीधे तौर पर बढ़ जाएंगी.
– India Samachar
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