समानांतर फिल्मों के पुरोधा श्याम बेनेगल एक ऐसे डायरेक्टर थे, जो बिमल रॉय की तरह ही हर मामले में मुकम्मल अनुशासन के लिए जाने गए. यथार्थवादी किरदार, ज़मीनी कहानी और औसत बजट- ये सबकुछ उनके हर फिल्मी प्रोजेक्ट का हिस्सा रहा. मूल्यों से समझौता नहीं किया, शर्तों पर विजन के साथ फिल्में बनाईं. बहुत से फिल्मकार समय के साथ नई नई धाराओं में बहते गए और सिनेमा के बदलते व्यावसायिक आयामों से समझौता करते गए लेकिन श्याम बेनेगल का काम करने का जो तरीका सन् 74-75 में आई अंकुर और निशांत में नजर आया, वह 2023 में आई मुजीब तक बरकरार रहा. श्याम बेनेगल की हर फिल्म कई मायनों में मील का पत्थर साबित हुई.
पिछले 14 दिसंबर को ही उन्होंने अपने प्रशंसकों के बीच 90वां जन्मदिन मनाया था, जिसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब शेयर की गई थी. इस दौरान दिग्गज अभिनेता कुलभूषण खरबंदा, नसीरुद्दीन शाह, दिव्या दत्ता, शबाना आज़मी, रजित कपूर, अतुल तिवारी, फिल्म निर्माता-अभिनेता और शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर और भी कई कलाकार समारोह का हिस्सा बने थे. अपने 90वां जन्मदिन पर श्याम बेनेगल ने पत्रकारों से आगामी कुछ प्रोजेक्ट्स के बारे में भी बातें की थीं. उन्होंने कहा था- मैं 2 से 3 प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं; वे सभी एक-दूसरे से अलग हैं. लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इनमें से कौन सी बना पाउंगा. हालांकि वे सभी प्रोजेक्ट्स बड़े पर्दे के लिए हैं.
इन फिल्मों का किया निर्देशन
श्याम बेनेगल की मंथन, भूमिका, आरोहण, अन्तर्नाद, जुनून, कलयुग, विजेता, हरी भरी, सूरज का सातवां घोड़ा, जुबैदा जैसी फिल्में कलात्मकता और सृजनात्मकता का मानों आख्यान हैं. उनकी फिल्में सिल्वर स्क्रीन पर लिखी किताब होती थीं. और जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की लिखी डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर आधारित धारावाहिक बनाया तो वह भी छोटे पर्दे एक किताब की शक्ल में था. हर एपिसोड मानों एक अध्याय था. इस धारावाहिक का एक एक फ्रेम दर्शनीय है. हजारों साल के इतिहास में जाकर धारावाहिक की एक-एक कड़ी का निर्माण किसी रिसर्च वर्क की तरह था.
श्याम बेनेगल ने ऐसे समय में फिल्मों में कदम रखा, जब मसाला फिल्मों का बोलबाला था. सन् सत्तर के बाद बहुत सारी फिल्में मानों घोर पलायनवादी होती जा रही थीं. कहानी बिना आशय वाली होती थी और उन फिल्मों का वजूद केवल गानों की बदौलत होता है. राजेश खन्ना और उनके तुरंत बाद अमिताभ बच्चन के उदय ने सिनेमा की लोकप्रियता के पैमाने बदल दिये थे. ऐसे में कला सिनेमा की जरूरत महसूस की गई, जिसमें समाज की सचाई को यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत किया जा सके. इसे एक आंदोलन का रूप दिया गया. श्याम बेनेगल में शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी और स्मिता पाटिल जैसे ऐसे कलाकारों के साथ फिल्में बनाईं जिनका सुपरस्टारडम से कोई लेना देना नहीं था.
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श्याम बेनेगल मानते थे कि सचाई को दिखाने के लिए फैंटेसी और स्टारडम की जरूरत नहीं. किरदार किताबों में लिखी कहानियों जैसे हों और परिस्थितियां भी. जन-शिक्षण का प्रचार-प्रसार यथार्थवादी शैली में ही हो सकता है, जैसा कि उन्होंने मंथन में दिखाया. जाहिर है यह अत्यंत जोखिम का काम था. इसमें पैसे डूबने के पूरे चांस थे लेकिन सिनेमा उनके लिए कमर्शियल वेंचर कभी नहीं रहा. हालांकि वह स्वांत: सुखाय फिल्में बनाना भी पसंद नहीं करते. उनकी हर फिल्म किसी ना किसी समस्या को उठाती और उसे एक मुकाम तक ले जाती है. उन्होंने नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी, ओमपुरी, दीप्ति नवल, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी जैसे कलाकारों को मौका दिया. उन्होंने अपने दौर की एक पूरी पीढ़ी को फिल्मों के जरिए नई चेतना दी.
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंची ख्याति
उनके सिनेमा की पहचान हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंची. उनकी सबसे बड़ी खूबी अनुशासन है. बगैर विश्राम किए अनवरत सार्थक फिल्मों का निर्माण करना उनका स्वभाव था. उन्होंने अपनी फिलों के जरिए इस मुल्क के तमाम लोगों को शिक्षित और संस्कारित करने का काम किया है. पिछले साल उन्होंने भारत सरकार और बांग्लादेश सरकार के सहयोग से बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर्रहमान के जीवन पर आधारित बायोपिक का निर्माण किया, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली. इस लिहाज से श्याम बेनेगल महान फिल्मकार सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक की परंपरा के ही फिल्मकार हैं.
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