महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अब महाविकास अघाड़ी गठबंधन पर सवाल उठने लगे हैं
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी-शिवसेना-एनसीपी महायुति ने कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार की तिकड़ी को करारी मात दी है. महा विकास अघाड़ी लोकसभा चुनाव में भले ही महाराष्ट्र में कामयाब रहा हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में पूरी तरह से फेल हो गया है. कांग्रेस, शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी (एसपी) मिलकर भी अर्ध शतक नहीं लगा सकी और तीनों ही पार्टियां 47 सीटों पर सिमट गई. ऐसे में सवाल उठने लगा है कि कांग्रेस-एनसीपी (एसपी) की उद्धव ठाकरे से दोस्ती का अंत तो नहीं हो जाएगा?
महाराष्ट्र के नतीजों ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे जैसे दिग्गज नेताओं के सियासी भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं तो साथ ही कांग्रेस के साथ शिवसेना (यूबीटी) का रिश्ता कितने दिनों तक कायम रहेगा, क्योंकि दोनों का बेमेल गठबंधन रहा. शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस एक दूसरे के वैचारिक विरोधी रहे हैं, लेकिन पांच साल पहले 2019 में मुख्यमंत्री की कुर्सी ने दोनों एक साथ ला दिया था. उद्धव ठाकरे बीजेपी के साथ गठबंधन 2019 का चुनाव लड़े थे, लेकिन मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा के चलते बीजेपी से दोस्ती खत्म कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी.
विधानसभा चुनाव में महा विकास अघाड़ी बेहद कमजोर स्थिति में
लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में कांग्रेस 12, उद्धव ठाकरे की शिवसेना के 9 और शरद पवार की एनसीपी के 8 सांसद जीते थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में तीनों मिलकर कोई असर नहीं दिखा सके. लोकसभा चुनाव नतीजे के चलते माना जा रहा था कि महा विकास अघाड़ी एक मजबूत चुनौती पेश करेगा, लेकिन नतीजे के बाद अब उसकी संभावना पूरी तरह कमजोर हई है. विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उद्धव ठाकरे और शरद पवार दोनों नेताओं को बेहद कमजोर स्थिति में ला दिया है.
महाराष्ट्र चुनाव नतीजों ने महा विकास अघड़ी की अंदरूनी कमजोरियां को उजागर करने के साथ वैचारिक स्तर पर बेमेल तालमेल काम नहीं आ सकी. महा विकास अघाड़ी में कांग्रेस और उद्धव ठाकरे के बीच सीटों बंटवारे को लेकर मामला आखिरी तक उलझा रहा. इसके अलावा शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस की वैचारिक स्तर पर विरोधी होने के चलते भी कोई स्पष्ट रणनीति पेश नहीं कर सकी. महाराष्ट्र चुनाव में बीजेपी ने ‘एक हैं तो सेफ हैं’ और ‘बटेंगे तो कटेंगे’ का नैरेटिव सेट कर हिंदुत्व की राजनीति को धार दिया.
2019 में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उद्धव के लिए महंगा तो नहीं पड़ा?
कांग्रेस के साथ रहने का खामियाजा शिवसेना (यूबीटी) को भी उठाना पड़ा है, क्योंकि उद्धव ठाकरे भी मुस्लिम वोटों को साधने में लगे रहे. उद्धव गुट पहले की तरह हिंदुत्व के पिच पर आक्रामक तरीके से नहीं उतर सका. इसीलिए उद्धव खेमा भी अब इस बात पर सोचने लगा है कि 2019 में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उनके लिए चुनाव में महंगा पड़ गया. बीजेपी ने वोट जिहाद, बटोगे तो कटोगे जैसे मुद्दे को आक्रामक तरीके से सेट किया जबकि उसके जवाब में राहुल गांधी जातीय जनगणना और आरक्षण लिमिट को खत्म कर उसे बढ़ाने का मुद्दा उठा रहे थे. उद्धव खेमा इन दोनों ही मुद्दों पर अलग राय रखता है.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद महा विकास अघाड़ी में सिर फुटव्वल शुरू हो गया है. महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस के प्रभारी रहे जी. परमेश्वर ने हार का ठीकरा गठबंधन सहयोगियों के सिर फोड़ा है. परमेश्वर ने कहा कि कांग्रेस ने कई सीटों पर शिवसेना (यूबीटी) का पूरा समर्थन नहीं मिला. एनसीपी (शरद पवार गुट) के साथ भी ऐसा ही देखने को मिला. उन्होंने कहा कि जब हम गठबंधन में होते हैं, तो शिवसेना के उम्मीदवारों का समर्थन करना होता है और शिवसेना को हमारे उम्मीदवारों का समर्थन करना चाहिए. यही समस्या शरद पवार की पार्टी के साथ भी हुई. इस तरह कांग्रेस ने उद्धव ठाकरे की शिवसेना पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं, जिसके साफ जाहिर है कि दोनों ही दोस्तअब टूटने के कगार पर है.
उद्धव ठाकरे लंबे समय तक बीजेपी के साथ रहे हैं
महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना 1996 से एक साथ मिलकर चुनाव लड़ती रही हैं तो कांग्रेस और एनसीपी एक साथ लड़ती रही हैं. शरद पवार कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी का गठन किया था. इस तरह शरद पवार की राजनीतिक कांग्रेसी ही रही है. उद्धव ठाकरे लंबे समय तक बीजेपी के साथ रहे और हिंदुत्व की राजनीति करते रहे. ऐसे में उनके लिए कांग्रेस के साथ तालमेल बनाकर चलना उद्धव के लिए काफी मुश्किल हो गया था. आरएसएस से लेकर सावरकर तक राहुल गांधी के आक्रामक तेवर पर उद्धव गुट कशमकश की स्थिति पड़ जाता था.
चुनाव में उद्धव ठाकरे की हालत पस्त
चुनाव में उद्धव ठाकरे की हालत पस्त हो गई है. बाला साहेब ठाकरे की विरासत को कैसे निभाया, यह भी देखने और समझने की जरूरत है. बालासाहेब की पूरी राजनीति मराठी अस्मिता और हिंदुत्व की रही है. उद्धव ठाकरे कांग्रेस के साथ रहते हुए उसे संभाल नहीं सके. ऐसे में बाला साहेब ठाकरे के नाम पर कैसे उद्धव ठाकरे अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे, यह भी देखने वाली बात होगी. उद्धव ठाकरे को फिर से अपनी राजनीति को नए तरीके से पिरोना होगा. राजनीति आगे और कोई करवट लेती है तो उद्धव ठाकरे के लिए आसान नहीं है.
– India Samachar
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