अखिलेश यादव, योगी आदित्यनाथ, सूचिस्मिता मौर्या, ज्योति बिंद
यूपी उपचुनाव के जिन नौ सीटों के परिणाम आएं, उनमें सबसे नजदीकी मामला मझवां में रहा. पहले राउंड से ही लगातार आगे रहने के बावजूद सिर्फ 4 हजार 936 वोटों से बीजेपी की सूचिस्मिता मौर्या चुनाव जीतीं, जो नौ सीटों में सबसे कम मार्जिन वाली जीत साबित हुई.
मझवां में इतिहास रचने के लिए व्याकुल समाजवादी पार्टी ने आखिर कहां गलती की जो चुनाव उनके हाथ से निकल गया या इसे दूसरे लफ्जों में कहें तो बीजेपी ने ऐसा क्या अलग कर दिया जिसकी वजह से कमल खिला. मझवां में बीजेपी के जीतने और सपा की हार के तीन बड़े कारण ये रहेः-
पहला – पीडीए का फार्मूला नहीं चला
जिस पीडीए फार्मूला के सहारे लोकसभा चुनाव में सपा ने जबरदस्त प्रदर्शन किया, वो मझवां में नही चला. बीजेपी ने सूचिस्मिता मौर्या को उम्मीदवार बनाकर लवकुश समीकरण (कुर्मी – कोइरी) साधने में काफी हद तक सफल रही. रमेश बिंद अपनी समाज के वोटरों को अपने पाले में लाने में तो सफल रहें लेकिन दूसरी पिछड़ी जातियों के वोटबैंक में सेंध नही लगा पाएं.
लोकसभा चुनाव में रमेश बिंद मझवां में 1 हजार 700 वोट से पीछे थे जबकि उपचुनाव में उनकी बिटिया ज्योति बिंद 4 हजार 936 वोटों से चुनाव हारी. लिहाजा, रमेश बिंद ने यादव-मुस्लिम और बिंद वोटरों के भरोसे चुनाव जीतने की जो रणनीति बनाई थी, उसमें वो कामयाब नही हुए. दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव से सबक लेते हुए बीजेपी ने गैर यादव – गैर जाटव वोटबैंक को लेकर जो रणनीति बनाई, उस वजह से पहले राउंड से ही वो आगे रहे और अंततः उनको सफलता मिली.
दूसरा – छोटे-छोटे वोटबैंक बीजेपी ने साध लिए
मझवां का चुनाव परिणाम बीजेपी की माइक्रो लेवल स्ट्रेटेजी की जीत है. मझवां में दो बड़े वोटबैंक थे – ब्राह्मण और बिंद. ब्राह्मण वोटबैंक में बसपा ने करीब 20 फीसदी का सेंध लगाया तो बिंद वोटर भी करीब 15 प्रतिशत बंटे. लेकिन असली खेल इसके बाद हुआ. बीजेपी ने ब्राह्मण वोटबैंक की भरपाई छोटे- छोटे ओबीसी, ईबीसी और एससी वोटों के समूह में सेंध लगाकर कर कर ली.
मझवां में महीने भर तक अनिल राजभर, पूजा पाल सरीखे नेताओं को लगातार सक्रिय रखा गया था. दरअसल, पाल, राजभर, बर्मा (एससी), गोंड, चौहान – इनका जाति का वोट करीब 15 हजार था. इसमें करीब 11 हजार वोट बीजेपी ने अपने खाते में डलवाये और ये वोट बीजेपी के लिए संजीवनी साबित हुई.
तीसरा – रमेश बिंद का ‘भूत’ सपा को भारी पड़ा
ऐसा बहुत कम होता है कि किसी भी पार्टी के लिए जो सबसे बड़ा स्ट्रेंथ हो, वही हार के लिए भी बड़ा कारण बन जाए. लेकिन मझवां में ये हुआ. ये बात अपनी जगह सही है कि डॉक्टर ज्योति बिंद सपा की उम्मीदवार थी लेकिन पार्टी की उम्मीद रमेश बिंद ही थे. जिनकी बिंद समाज में रॉबिनहुड वाली छवि है.
पार्टी के लिए रणनीति बनाने से लेकर प्रचार तक में उनकी भूमिका निर्णायक रही और यही सपा के लिए बड़ा नुकसान साबित हुआ. ये भी तथ्य अपनी जगह सही है कि रमेश बिंद की ही वजह से बिंद समाज ने एकजुट होकर सपा को वोट किया लेकिन दूसरा सच ये भी है की इसी वजह से अन्य ओबीसी और दलित जातियों ने सपा से दूरी बना ली.
ब्राह्मण समाज का वो तबका जो सरकार की नीतियों और महंगाई-रोज़गार जैसे मुद्दे की वजह से बदलाव चाहता था, वो भी सपा से भी दूर रहा. रमेश बिंद ने पिछले कुछ सालों में ब्राह्मण समाज और गैर बिंद ओबीसी समाज के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया और आपत्तिजनक बयान दिए, वो सबकुछ चुनाव के दौरान ‘भूत’ बनकर उपचुनाव में सपा को सताता रहा.
इसी वजह से पहले राउंड से 11वें राउंड तक मझवां ब्लॉक के ईवीएम की गिनती में सूचिस्मिता लगातार आगे रहीं. लेकिन 12वें से 18वें राउंड तक पहाड़ी ब्लॉक, जो बिंद बहुल इलाका है, वहां से डॉक्टर ज्योति बिंद आगे रहीं. और फिर जब सदर की गिनती शुरू हुई तो बीजेपी प्रत्याशी काफी आगे निकल गईं.
एक चीज और हुई, बसपा के दीपू तिवारी ने पार्टी के काडर दलित वोटरों और कुछ हद तक ब्राह्मण वोटरों के आसरे 35 हजार वोट हासिल किया. लेकिन यहीं एक चीज और थी. अगर ब्राह्मण वोटबैंक में दीपू तिवारी थोड़ा और सेंधमारी कर लिए होते तो मझवां का परिणाम कुछ और होता.
– India Samachar
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