फिल्म इंडस्ट्री में एक से बढ़कर एक गीतकार हुए जिन्होंने दर्शन को अपने बोलों में मिलाकर कई गीतों को अमर कर दिया. गोपाल दास नीरज ऐसे एक महान कवि थे जिनके मोती से शब्द जब संवेदनशीलता से मिले तो गीतों की ऐसी माला तैयार हुई जिसकी वाहवाही सभी ने की. उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में और गीतकारों के मुकाबले बहुत कम गाने लिखे लेकिन वो गाने ऐसे थे जिन्हें 5 दशक बाद भी याद किया जाता है. उनकी रेलिवेंसी ऐसी है कि हर एक पीढ़ी के लोगों की जुबां पर ये गाने आ ही जाते हैं. जब रोमांस की बात आती है तो नीरज ने ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’ गीत लिखते हैं और प्यार के दैविक नशे की खुमारी में सबको मदहोश कर देते हैं. जब उन्होंने जीवन के मायने अपने गीतों में पिरोए तो ‘ए भाई जरा देख के चलो’ लिख डाला.
जब उन्होंने वक्त की बढ़ती सूइयों के साथ इंसान की थमी तंगहाली को अपने गीतों में कैद किया तो लिखा-
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठे कि जिन्दगी फिसल गई
पातपात झर गये कि शाख़शाख जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गये
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, हम गुबार देखते रहे.
हमेशा एक काबिल कवि सिर्फ भूतकाल और वर्तमान काल पर ही कविताएं नहीं लिखता है बल्कि वो भविष्य की भी अपनी परिकल्पना बनाता है. अब ये तो उसकी सार्थकता है कि अगर वो कविताएं भविष्य में जाकर हालातों से मिल जाएं. आज हर तरफ विध्वंश फैला हुआ है. लोग मारने-मिटने को तैयार हैं. शक्तियां गलत दिशा में हावी हो रही हैं. ऐसे में गोपाल दास नीरज ने भी दशकों पहले एक परिकल्पना की थी जिसके माध्यम से उन्होंने तीसरे विश्व युद्ध की संभावनाओं को नकारा था. आज जब ऐसी संभावनाएं दुर्भाग्य से कहीं से भी सुनने को आती हैं तो उसके सामने गोपाल दास की ये चट्टान सरीखी कविता आकर खड़ी हो जाती है. ये अपने आप में ही आने वाले मुश्किल दौर में जीवन की प्रफुल्लित और प्रबुद्धता के प्रबल होने की संभावनाओं को बरकरार रखता है. आइये गोपाल दास नीरज की 100वीं जयंती पर पढ़ते हैं उनका लिखी ये कविता.
कविता का शीर्षक- मैं सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध हुआ-
मैं सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध हुआ
इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा
मैं सोच रहा हूं गर जमीं पर उगा खून
इस रंग महल की चहल पहल का क्या होगा
ये हंसते हुए गुलाब महकते हुए चमन
जादू बिखराती हुई रूप की ये कलियां
ये मस्त झूमती हुई बालियां धानों की
ये शोख सजल शरमाती गेहूं की गलियां
गदराते हुए अनारों की ये मंन्द हंसी,
ये पेंगें बढ़ा-बढ़ा अमियों का इठलाना
ये नदियों का लहरों के बाल खोल चलना
ये पानी के सितार पर झरनों का गाना
नैनाओं की नटखटी ढिठाई तोतों की
ये शोर मोर का भोर भृंग की ये गुनगुन
बिजली की खड़क धड़क बदली की चटकमटक
ये जोग जुगनुओं की झींगुर की ये झुनझुन
किलकारी भरते हुये दूध से ये बच्चे
निर्भीक उछलती हुई जवानों की टोली
रति को शरमाती हुई चांद सी ये शकलें
संगीत चुराती हुई पायलों की ये बोली
आल्हा की ये ललकार थाप ये ढोलक की
सूरा-मीरा की सीख कबीरा की वाणी
पनघट पर चपल गगरियों की ये छेड़-छाड़
राधा की कान्हा से गुपचुप आनाकानी
क्या इन सब पर खामोशी मौत बिछा देगी
क्या धुंध-धुआं बनकर सब जग रह जायेगा
क्या कूकेगी कोयलिया कभी न बगिया में
क्या पपीहा फिर न पिया को पास बुलायेगा
जो अभी-अभी सिंदूर लिये घर आई है
जिसके हाथों की मेंहदी अब तक गीली है
घूंघट के बाहर आ न सकी है अभी लाज
हल्दी से जिसकी चूनर अब तक पीली है
क्या वो अपनी लाडली बहन साड़ी उतार
बेचेगी नित चूड़ियां बाजारों में
जिसकी छाती से फूटा है मातृत्त्व अभी
क्या वो मां दफनायेगी दूध मजारों में
क्या गोली की बौछार मिलेगी सावन को
क्या डालेगा विनाश झूला अमराई में
क्या उपवन की डाली में फूलेंगे अंगार
क्या घृणा बजेगी भौंरों की शहनाई में
चाणक्य, मार्क्स, एंजिल, लेनिन, गांधी सुभाष,
सदियां जिनकी आवाजों को दोहराती हैं
तुलसी, बर्जिल, होमर, गोर्की शाह, मिल्टन
चट्टानें जिनके गीत अभी तक गाती हैं
मैं सोच रहा क्या उनकी कलम न जागेगी
जब झोपड़ियों में आग लगायी जायेगी
करवटें न बदलेंगीं क्या उनकी कब्रें जब
उनकी बेटी भूखी पथ पर सो जाएगी
जब घायल सीना लिये एशिया तड़पेगा
तब वाल्मीकि का धैर्य न कैसे डोलेगा
भूखी कुरान की आयत जब दम तोड़ेगी
तब क्या न खून फिरदौसी का कुछ बोलेगा
ऐसे ही घट चरके ऐसी ही रस ढुरके,
ऐसे ही तन डोले ऐसे ही मन डोले
ऐसी ही चितवन हो ऐसी कि चितचोरी
ऐसे ही भौंरा भ्रमे कली घूंघट खोले
ऐसे ही ढोलक बजें मंजीरे झंकारें,
ऐसे कि हंसे झुंझुने बाजें पैजनियां
ऐसे ही झुमके झूमें चूमें गाल बाल
ऐसे कि हों सोहरें लोरियां रसबतियां
ऐसे ही बदली छाये कजली अकुलाए
ऐसे ही बिरहा बोल सुनाये सांवरिया
ऐसे ही होली जले दिवाली मुस्काये,
ऐसे ही खिले फले हरयाए हर बगिया
ऐसे ही चूल्हे जलें राख के रहें गरम
ऐसे ही भोग लगाते रहें महावीरा
ऐसे ही उबले दाल बटोही उफनाए
ऐसे ही चक्की पर गाए घर की मीरा
बढ़ चुका बहुत आगे अब रथ निर्माणों का
बम्बों के दलबल से अवरुद्ध नहीं होगा
है शान्त शहीदों का पड़ाव हर मंजिल पर
अब युद्ध नहीं होगा अब युद्ध नहीं होगा.
अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए हमारा एप्प डाउनलोड करें |
Copyright Disclaimer Under Section 107 of the Copyright Act 1976, allowance is made for “fair use” for purposes such as criticism, comment, news reporting, teaching, scholarship, and research. Fair use is a use permitted by copyright statute that might otherwise be infringing. Non-profit, educational or personal use tips the balance in favor of fair use.
Source link