पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है. पाकिस्तान जो कभी तालिबान का समर्थक था लेकिन अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी से दोनों के समीकरण बिगड़ चुके हैं.
पाकिस्तान जिसने कभी गुड तालिबान और बैड तालिबान की थ्योरी गढ़ी था वो अब तालिबान पर ताबड़तोड़ हमला कर रहा है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि धार्मिक चरमपंथियों का समर्थन करने की पाकिस्तान की रणनीति उल्टी पड़ गई है और यही वजह है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं.
पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच बढ़ा तनाव
पाकिस्तान ने 24 दिसंबर को अफगानिस्तान के पक्तिका प्रांत पर भीषण एयर स्ट्राइक की, जिसमें कथित तौर पर महिलाओं और बच्चों सहित 46 लोग मारे गए. पाकिस्तानी सेना का कहना है कि उन्होंने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के आतंकियों को निशाना बनाया है, जिनका उद्देश्य पाकिस्तान की सरकार को उखाड़ फेंकना और इस्लामिक शासन की स्थापना करना है. पाकिस्तान का आरोप है कि यह समूह अफगान क्षेत्र से काम कर रहा है और इसी के चलते मुल्क में बीते कुछ महीनों से आतंकी हमले बढ़े हैं.
अफगानिस्तान ने काबुल में पाकिस्तान के दूतावास के प्रभारी को भी तलब किया और हवाई हमलों के बारे में कड़ा विरोध दर्ज कराया. साथ हीतालिबान सरकार ने पाकिस्तान के कदम की निंदा करते हुए हवाई हमलों को अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों का उल्लंघन बताया और जवाबी हमले शुरू कर दिए.
यही वजह है कि अब पाकिस्तान को अपने आंतरिक राजनीतिक संकट और बीमार अर्थव्यवस्था के बीच एक प्रमुख सहयोगी के साथ बड़ी कूटनीतिक सिरदर्द का सामना करना पड़ रहा है, एक ऐसी समस्या जिसके बारे में विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता.
तनाव की असल वजह क्या है?
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच उपजे तनाव की असल वजह ऐतिहासिक है. विवाद की जड़ें अंग्रेजों द्वारा खींची गई डुरंड लाइन से जुड़ी हैं, जो 1893 में स्थापित औपनिवेशिक युग की सीमा है, जिसे लगातार अफगान सरकार ने मान्यता देने से इनकार कर दिया है.
ऑस्ट्रेलिया की नेशनल यूनिवर्सिटी के डेवलपमेंट प्लानिंग सेंटर के वरिष्ठ लेक्चरर नेमातुल्लाह बिज़ान का कहना है कि, ‘दोनों मुल्कों के बीच मुख्य मुद्दा सीमा तनाव रहा है, जो TTP के फिर से उभरने और पाकिस्तान के अनुरोध के बावजूद तालिबान सरकार की ओर से TTP के खिलाफ कार्रवाई से इनकार करने की वजह से और बढ़ गया है.’
डॉ. बिज़ान कहते हैं कि कि पाकिस्तान ने अफगान राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के लिए लंबे समय से धार्मिक चरमपंथ को बढ़ावा दिया है. 1980 के दशक में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के दौरान, पाकिस्तान ने युवा अफगान शरणार्थियों को लड़ाकों के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए धार्मिक स्कूल स्थापित किए, जिससे अफगानिस्तान पर प्रभाव बनाने में मदद मिली. हालांकि हाल के कुछ वर्षों में पाकिस्तान की यह रणनीति उल्टी पड़ गई है, क्योंकि TTP जैसे चरमपंथी धार्मिक समूहों ने अपना ध्यान पाकिस्तान पर केंद्रित कर लिया है.
पाकिस्तानी सेना का TTP के साथ बढ़ता संघर्ष
सिंगापुर में RSIS के सीनियर एसोसिएट फेलो अब्दुल बासित ने बताया कि पाकिस्तान और TTP ने 2021 और 2022 में कमज़ोर युद्धविराम समझौते किए थे, लेकिन विश्वास की कमी और वैचारिक मतभेदों के कारण यह टूट गए. बासित के मुताबिक, ‘TTP ने जातीय पश्तून राष्ट्रवाद को इस्लामवादी विचारधारा के साथ मिला दिया है, खुद को पश्तून अधिकारों के चैंपियन के रूप में पेश करते हुए इसने सीमा और शासन के मुद्दों पर शिकायतों का फायदा उठाया है.’
अमेरिकी हथियारों ने TTP को दी मजबूती
साल 2021 में अफगानिस्तान से जब अमेरिकी सेना का पैकअप हुआ तो उन्होंने बड़ी संख्या में हाईटेक हथियार यहीं छोड़ दिए, अब्दुल बासित बताते हैं कि इन हाईटेक अमेरिकी हथियारों ने TTP को और घातक बना दिया है.
उन्होंने कहा कि, समूह के पास अब लंबी दूरी की स्नाइपर राइफलें और नाइट-विज़न गॉगल्स हैं, जिससे वह पाकिस्तानी आर्मी के खिलाफ सटीक हमले करने में कामयाब हो रहे हैं.
तालिबान को लेकर गलत साबित हुआ अनुमान!
विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान ने काबुल में तालिबान की सत्ता में वापसी के संभावित समीकरणों को लेकर गलत अनुमान लगाया. इस्लामाबाद को उम्मीद थी कि तालिबान TTP की गतिविधियों पर अंकुश लगाएगा, पाकिस्तान में रहने वाले हजारों अफगान शरणार्थियों को वापस ले जाएगा और अफगानिस्तान में पाकिस्तान विरोधी तत्वों को बेअसर कर देगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
एक्सपर्ट्स के मुताबिक, ‘पाकिस्तान ने यह मान लिया था कि तालिबान के सत्ता में आने से सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, लेकिन हर बड़ी समस्या – शरणार्थी, सीमा विवाद, आतंकी हमले और भी गंभीर हो गई. पाकिस्तान अब इन चरमपंथी समूहों में अपने दशकों लंबे निवेश की कीमत चुका रहा है.’
पाकिस्तान के लिए घरेलू चुनौतियां अहम
सीनियर एसोसिएट फेलो अब्दुल बासित का कहना है कि TTP के हमले, बलूचिस्तान में जारी विद्रोह और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को हटाने से उपजे राजनीतिक उथल-पुथल के कारण पाकिस्तान की सेना पर बहुत ज़्यादा दबाव है.
उन्होंने कहा कि तनाव को पूरी तरह से हल करने के बजाय उसे मैनेज करने के लिए बुनियादी चर्चा की ज़रूरत है. तालिबान सरकार की अंतरराष्ट्रीय वैधता की कमी इसमें एक बड़ी बाधा साबित हो रही है. विशेषज्ञों का मानना है कि फिलहाल अफगानिस्तान के साथ सीमा विवाद और TTP की चुनौती पाकिस्तान के लिए परेशानी का सबब बनी रहेगी, जब तक वह इन मसलों का कोई व्यावहारिक समाधान नहीं निकाल लेता.
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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम
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