जर्मनी में राष्ट्रपति ने संसद भंग कर दी और अगले साल 2025 में 23 फरवरी को नया चुनाव कराने का आदेश दे दिया लेकिन सवाल कायम है चुनाव के बाद भी क्या देश की आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकेगा? जर्मन मीडिया में इस मुद्दे पर खुल कर लिखा जा रहा है. विशेषज्ञों का कहना है जर्मनी को अपनी सुरक्षा तय करने के लिए अमेरिका पर निर्भर रहना अब बंद करना होगा. लेकिन क्या जर्मनी इसके लिए खुद को तैयार कर पा रहा है? जमीनी हालात बताते हैं, ऐसा नहीं है. लिहाजा चुनाव बाद भी जर्मनी में स्थिति बदलेगी, इसकी संभावना कम ही है. गौरतलब है कि जर्मनी में नई सरकार के चुनाव से पहले अमेरिका के नये राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप की सरकार बन चुकी होगी. ऐसे में जाहिर तौर पर जर्मनी के सामने बड़ी चुनौती आना अभी बाकी है. जिसका सामना करना ही पड़ेगा.
जर्मनी फिलहाल मुद्रास्फीति, यूक्रेन-रूसी युद्ध, चीन से बढ़ती प्रतिस्पर्धा और अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी से चिंतित है. इन सभी मुद्दों ने मिलकर जर्मनी के अंदर जैसे तूफान खड़ा कर रखा है. जर्मन लोगों में चिंता बढ़ा दी है. लोग भविष्य में खुशहाली को लेकर परेशान हैं. जर्मनी आंतरिक उथल-पुथल से जूझ रहा है और उसे अमेरिका से मिल रहे अब तक के सहयोग में भी कटौती हो सकती है. अगले साल जर्मनी की विदेश नीति में जो सबसे बड़े बदलाव दिख सकते हैं वो यूक्रेन युद्ध को प्रभावित करने वाले होंगे. ट्रंप ने हाल ही में फिर से कहा कि उनकी सरकार बनने पर तुरंत युद्ध विराम की मांग की जाएगी और यूक्रेन को सहयोग में कटौती होगी.
रूस-यूक्रेन युद्ध में क्या होगा रुख?
आखिर जर्मनी के लिए इसके क्या मायने होंगे? जर्मन मीडिया में इस मुद्दे पर फिर भी साफ-साफ लिखा जा रहा है. जर्मन विदेश मंत्री अन्नालेना बैरबॉक का साफ कहना था कि जर्मनी यूक्रेन के साथ खड़ा है, चाहे अमेरिका में चुनाव का जो नतीजा आए. यूक्रेनियों से कोई भी शांति वार्ता नहीं हो सकती. उन्होंने तो यहां तक कहा कि जर्मनी को अब भी यूक्रेन में अपना खर्च बढ़ाना चाहिए, साथ ही सुरक्षा पर भी. लेकिन जर्मनी के बजट की सीमाएं देख कर यह बहुत व्यावहारिक नहीं लगता. ऐसा करने के लिए जर्मनी को नया कर्ज लेना होगा. तो क्या इस अस्थिरता के समय में जर्मनी के लिए ऐसा करना संभव हो सकेगा?
मध्य पूर्व की अस्थिरता से प्रभावित
जर्मनी के सामने अमेरिका की भावी ट्रंप सरकार की संभावित नीतियां ही नहीं बल्कि मध्यपूर्व के जंगी हालात भी चिंताजनक बने हुए हैं. दिसंबर की शुरुआत में सीरिया में विध्वंस, सत्ता बेदखली और विद्रोही गुटों के आधिपत्य से वहां की स्थिति काफी जटिल हो गई है. सीरिया में लोग असद शासन के खात्मा पर जश्न मना रहे हैं. असद सरकार को रूस और ईरान का समर्थन था. जर्मनी को इस बात की आशंका सता रही है कि शरणार्थियों का नये सिरे से यूरोप की ओर पलायन हो सकता है. यही वजह है कि सीरिया में उठापटक और उससे पहले इजरायल-हमास-हिज्बुल्लाह की लड़ाई के बीच जर्मनी संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है.
जर्मनी की अर्थव्यवस्था का हाल
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने बताया है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है. कम जीडीपी वृद्धि, कम श्रम उत्पादकता, खराब सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, श्रम बाजार में महिलाओं की कम भागीदारी दर, वृद्ध होती आबादी और नौकरशाही के शिकंजे से जर्मनी फिलहाल त्रस्त है. संभावना यह है कि नई सरकार राजकोषीय लचीलेपन के लिए ऋण ब्रेक में सुधार पर विचार करे. आईएमएफ के अनुमानों के मुताबिक ऋण ब्रेक नियम में सुधार का तात्पर्य जर्मन मूल कानून के एक अनुच्छेद को बदलना है. 23 फरवरी को होने वाले चुनावों के बाद के सरकार कार्यकास में यह बदलाव की संभावना है.
सुस्त अर्थव्यवस्था को लेकर जर्मन चिंतित
जर्मनी में फिलहालअगले चांसलर बनने की दौड़ में फ्रेडरिक मर्ज़ सबसे आगे चल रहे हैं, जिन्होंने मौजूदा चांसलर स्कोल्ज़ और उसके गठबंधन पर तीखे हमले किए हैं. मैगडेबर्ग में क्रिसमस मार्केट पर हुए हमले में 5 लोगों की मौत को लेकर भी उन्होंने निशाना साधा है. दूसरी तरफ एक फोन सर्वे में जर्मन चुनाव में अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा मुद्दा बताया गया है. इसके अलावा देश के अंदर बढ़ती आपराधिक गतिविधियां, शरणार्थी समस्या और यूक्रेन-रूस युद्ध भी अहम मुद्दे हैं. जर्मन मीडिया के मुताबिक लोग अपने देश की सुस्त अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं. लोगों को उम्मीद है जर्मनी में नई सरकार बनने के बाद हालात में अवश्य सुधार होंगे.
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सौजन्य से टीवी9 हिंदी डॉट कॉम
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