Padma Vibhushan Ustad Zakir Hussain Death: तबले की धुन पर लोगों को मोहित कर देने वाला फनकार अब इस दुनिया से रुखसत हो चुका है. संगीत की दुनिया बहुत सूनी हो गई है. अमेरिका के कैलिफॉर्निया स्थित सैन फ्रांसिस्को के एक अस्पताल में जाकिर हुसैन ने अंतिम सांस ली. 16 दिसंबर, 2024 को 73 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. जाकिर हुसैन उन चंद कलाकारों में से एक थे जिन्होंने अपने करियर को जरिया बनाकर दुनियाभर में शास्त्रीय संगीत का कद ऊंचा किया. साथ ही भारत के रिच कल्चर का परचम भी दुनियाभर में लहराया. कोई फनकार ऐसे नहीं बन जाता. उसके फनकार बनने के पीछे की अपनी एक कहानी होती है. जाकिर हुसैन के भी इतने बड़े फनकार बनने की एक कहानी है. आइये आज क्लासिकल म्यूजिक के रॉकस्टार के उसी सफर पर चलते हैं.
तबला को लेकर प्रेम
जाकिर हुसैन को संगीत विरासत में मिला. जब वे डेढ़ दिन के थे तब उनके पिता और मशहूर तबला वादक उस्ताद अल्लाह रक्खा ने उनके कानों में ताल गाई थी. वहीं पर नन्हें से जाकिर को वरदान भी मिल गया था और पिता का आशीर्वाद भी. इसके बाद चूंकि पिता तबला वादक थे तो जैसे-जैसे जाकिर हुसैन बड़े हुए संगीत उनकी तरबियत का हिस्सा बनता चला गया. अल्लाह रक्खा खुद एक बड़े फनकार थे और वे बड़े-बड़े संगीतकारों की शोहबत में थे. ऐसे में तबले से उनका लगाव भी बहुत पुराना रहा. उनके घर में संगीतकारों का आना-जाना लगा रहता था. तो शुरुआत से ही जाकिर हुसैन को वो माहौल मिला और साथ ही जीवन में क्या करना है वो दिशा भी मिल गई.
जाकिर हुसैन के दिल छू लेने वाले किस्से
कम उम्र से ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था. 7 साल की नाजुक उम्र में उन्हें संगीत की तालीम मिलनी शुरू हो गई थी. उन्होंने अपने पिता अल्लाहरक्खा से ही तबला बजाना सीखा. इसके बाद 12 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला कॉन्सर्ट भी दे दिया था. उन्हें तबले से प्रेम था. और उनका ये प्रेम ही जब उनकी लगन, मेहनत और ताप में घुला तो हर एक ध्वनि ईश्वरीय निकली. उनकी प्रस्तुति में इबादत की महक आ गई. हर धुन से जनता जुड़ी और तबला वादक को सलाम किया. एक किस्सा उन्हें लेकर ये भी मशहूर है कि वे कभी किसी और से अपना तबला नहीं उठवाते थे. वे अपने तबले को मंच तक हमेशा खुद ही लेकर आते थे. ये तबले के प्रति उनका प्रेम दिखाता था और एक बड़े कलाकार का बड़प्पन भी. पंडित विश्वमोहन भट्ट ने चेन्नई के एक कॉन्सर्ट में उस्ताद की महानता का ये किस्सा बताया था.
जाकिर हुसैन की सबसे बड़ी बात ये थी कि वे कला के बीच में कभी भी मजहब को लेकर नहीं आए. वे कार्यक्रम में सभी धर्मों का सम्मान करते थे. हिंदू धर्म में संगीत को मां सरस्वति का रूप माना गया है. उन्होंने भी संगीत को एक साधना की तरह अपनाया. पूरी पवित्राता से उस परम भाव को जिया. उनसे जुड़ा एक किस्सा ये भी मशहूर है कि वे तबले को कभी भी जमीन पर नहीं पड़ने देते थे. मुफलिसी में जब वे थर्ड क्लास में सफर करते थे तो कई बार उन्हें बैठने की जगह नहीं मिलती थी. ऐसे में वे भले ही जमीन पर सोते थे लेकिन अपने तबले को जमीन पर नहीं रखते थे. वे उन्हें हमेशा अपने ऊपर रखते थे. ये वही भाव है कि उन्होंने कला को जीवन में हमेशा खुद से ज्यादा महत्ता दी.
कला के अनूठा सूरमा
तबला तो बहुत लोग बजाते हैं. लेकिन जाकिर हुसैन का नाम इतना बड़ा कैसे है. इसके पीछे भी बहुत सारी वजहें हैं. इसमें कला के प्रति उनका लगाव, हमेशा नया करते रहने का जुनून, उनकी खुद की चार्मिंग पर्सनालिटी और सबसे ऊपर संगीत साधना. साधना एक वरदान की तरह है. जिसने खुद को साध लिया उसके लिए फिर कुछ भी मुश्किल नहीं रह जाता है. एक बार एक बड़े तबला वादक से पूछा गया कि जाकिर हुसैन सबसे ऊपर कैसे? तो इसके जवाब में उस फनकार ने कहा कि वो भी उतना ही तबला जानता है जितना जाकिर जानते हैं. लेकिन जाकिर की साधना, उनती तपस्या और उनका रियाज उन्हें दूसरों से अलग बनाता है. तभी तो जाकिर हुसैन अपने कॉन्सर्ट्स में ऐसी परफॉर्मेंस देते थे कि लोग हैरान रह जाते थे. वे तबले पर कभी दौड़ते हुए घोड़े कि धुन बजाते थे, कभी चलती ट्रेन की, कभी शंख की धुन वे तबले से निकालते थे तो कभी भगवान शिव का डमरू. उनके तबले की धुन में मंदिर की घंटी तक सुनाई देती थी. यही तो उन्हें सबसे अद्भुत बनाता था. सबसे अलग. कला का सबसे अनूठा सूरमा.
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कहां से कहां तक पहुंचे
किसी के लिए भी एक ऐसे मुकाम पर पहुंचना इतना आसान नहीं होता है जहां उसकी तुलना सिर्फ खुद से ही की जा सके. जैसे गाने में मोहम्मद रफी-लता मंगेशकर का नाम लिया जाता है, जहां सितार में पंडित रवि शंकर का नाम यकलख्त ही जुड़ा चला आता है, जैसे शहनाई की धुन कानों में पड़ते ही मुंह से उस्ताद बिसमिल्लाह खां का नाम आ जाता है तो वहीं तबला का भी पर्याय जाकिर हुसैन को ही माना जाता है. जाकिर हुसैन का जन्म 9 मार्च 1951 को मुंबई में हुआ था. रिपोर्ट्स की मानें तो 11 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला प्रोफेशनल शो कर दिया था. आप जानकर हैरान होंगे कि इसके लिए उन्हें सिर्फ 5 रुपये मिले थे. लेकिन ये तो बस एक शुरुआत थी.
जाकिर खान ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे खुशनसीब थे जो उनका जन्म उस्ताद अल्ला रक्खाके घर हुआ. इसका फायदा उन्हें ये मिला कि उन्हें कई सारे बड़े फनकारों के साथ काम करने का मौका मिल गया. 12 साल की उम्र से ही वे उस्ताद बड़े गुलाम अली, ओंकारनाथ ठाकुर और आमिर खां जैसे महारथियों के साथ काम कर रहे थे. 16-17 साल की उम्र में पंडित रविशंकर, अली अकबर खां जैसे लेजेंडरी कलाकारों के साथ परफॉर्म कर रहे थे. फिर उन्होंने हरि प्रसाद सौरसिया, अमजद खान और शिव कुमार जैसे बड़े कलाकारों के साथ भी जुगलबंदी की. ये अपने आप में एक बड़ी विरासत है. और जाकिर हुसैन अपने आप को खुशनसीब मानते हैं कि उन्हें 4 पीढ़ियों के साथ संगीत का हिस्सा बनने का मौका मिला.
ग्रैमी और अलग-अलग पुरस्कार
जाकिर हुसैन के जीवन परिचय के साथ उन्हें मिले पुरस्कारों की लड़ियां हैं. क्या देश, क्या विदेश, उन्हें हर तरफ से अवॉर्ड ही अवॉर्ड मिले. उस्ताद को साल 1988 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया. 1990 में उन्हें संगीत नाटक अकदमी पुरस्कार मिला. इसके बाद उन्हें साल 2002 में पद्म भूषण से नवाजा गया. ज्यादा पीछे ना जाएं तो साल 2023 में ही उन्हें देश के दूसरे सबसे श्रेष्ठ सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. अमेरिका ने भी जाकिर हुसैन की प्रतिभा को सराहा और उन्हें वहां का कला जगत में मिलने वाला श्रेष्ठ सम्मान नेशनल हैरिटेज फेलोशिप से नवाजा गया. यही नहीं दुनियाभर में संगीत का सबसे बड़ा अवॉर्ड ग्रैमी माना जाता है. जाकिर साहब की झोली में 4 बार ग्रैमी अवॉर्ड भी आए हैं. यही नहीं उन्होंने कालीदास सम्मान भी मिला. फनकार को अलग-अलग तरह से इन सालों में ट्रिब्यूट दिया गया.
पिछले दिनों क्या कर रहे थे
एक कलाकार के बारे में कहा जा सकता है कि उसका अंत हो सकता है लेकिन उसकी कलाकारी का अंत कभी नहीं हो सकता है. जाकिर हुसैन ने कला का दामन जो नाजुक उम्र में थामा तो उसे ताउम्र निभाया. उन्होंने देश-विदेश में हजारों कॉन्सर्ट किए. करोड़ो रुपये कमाए. इज्जत कमाई, शोहरत कमाई. लेकिन आकर्षण के बहाव में कभी अपनी संगीत साधना को कम नहीं होने दिया. यहां तक कि इंतकाल से थोड़ा पहले ही उन्होंने पेरिस में अपना आखिरी कॉन्सर्ट किया था. मतलब वे 73 की उम्र में भी पूर्ण रूप से अपनी कला में लीन थे.
कई फिल्मों काम किया और तबला बजाया
फिल्मों से भी जाकिर हुसैन का गहरा नाता रहा. बॉलीवुड ने भी वक्त वक्त पर उस्ताद जी का दामन थामा. कहा जाता है कि एक कलाकार को कभी भी सीमित नहीं रखा जा सकता है. उन्होंने तो अभिनय भी किया. साल 1983 में आई फिल्म हीट एंड डस्ट में वे एक एक्टर के रूप में नजर आए थे. इसके बाद वे द परफेक्ट मर्डर, साज, मिस बिट्टीज चिल्ड्रन, मंटो और मंकी मैन जैसी फिल्मों में अपना योगदान दिया. साज फिल्म में उन्होंने एक्टिंग की थी. इस फिल्म को साई पारंजपे ने बनाया था. इसे लता मंगेशकर और उनकी बहनों के जीवन से प्रेरित माना जाता है. इन कस्टडी, मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और लिटिल बुद्धा जैसी फिल्मों में उन्होंने साउंडट्रैक दिया.
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कुल मिलाकर जाकिर हुसैन एक अनूठे थे. एक ऐसे फनकार जिन्हें कला की कद्र थी. इसी कद्र ने उन्हें दुनियाभर में पहचान दिलाई. भले ही उन्हें कितने भी देश-दुनिया के बड़े सम्मान मिले हों, लेकिन सही मायने में तो वे देश के भारत रत्न माने जाएंगे. एक ऐसा रत्न जो संगीत के जहां में एक जगमगाते सितारे कि तरह चमकता रहेगा. जैसे जाकिर चले गए, वैसे ही इस विधा में भी कलाकार आएंगे, नाम कमाएंगे और चले जाएंगे. रह जाएगा तो बस जाकिर हुसैन का अंदाज, जिसे सारी दुनिया नमन करेगी और उनके सम्मान में कहती रहेगी- ‘वाह उस्ताद’.
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