विनायक दामोदर सावरकर को लेकर राहुल गांधी अक्सर मुखर दिखते रहे हैं.
इसमें कोई शक नहीं है, कि पंडित नेहरू की लीक पर चलने वाली कांग्रेस विनायक दामोदर सावरकर की घोर विरोधी रही है. किंतु कांग्रेस कभी उन्हें नकार नहीं सकी. न नेहरू न इंदिरा और न आज राहुल गांधी. अन्यथा क्या बात थी कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान एक वक्ता ने सावरकर का गीत पढ़ा. बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स में चल रही महाविकास अघाड़ी की बैठक में सावरकर का गीत ‘जयोस्तुते, जयोस्तुते श्री महन्मंगले शिवास्पदे शुभदे, स्वतंत्रते भगवती त्वामहं यशोयुतां वंदे’ पढ़ा गया.
हालांकि उस समय राहुल गांधी मंच पर नहीं थे लेकिन वह वहां आने वाले तो थे ही. इस बैठक को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, NCP (SP) नेता शरद पवार और शिवसेना (UBT) के नेता उद्धव ठाकरे का भी भाषण होना था. ये सभी कांग्रेस के साथ गठबंधन में हैं.
सावरकर को लेकर कांग्रेस दुविधा में रही
पर जो लोग समझते हों कि कांग्रेस सावरकर की विरोधी रही है, वे भ्रम में हैं. कांग्रेस ने कभी स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर की सार्वजनिक भर्त्सना नहीं की. महात्मा गांधी ने उनकी पुस्तक 1857: पहला भारतीय स्वाधीनता संग्राम की खूब तारीफ की थी. 1907 में आई यह पहली पुस्तक थी, जिसमें 1857 के आंदोलन को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया गया था. अंग्रेजों ने आदेश दिया कि 1857 के 50 वर्ष बाद तक कोई भी इस आंदोलन के नायकों पर कुछ नहीं लिखेगा.
तब पहली बार सावरकर ने इस मुद्दे को उठाया था. यही नहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सावरकर की मृत्यु के बाद उन पर डाक टिकट भी जारी किया था. उनकी मृत्यु पर शोक प्रस्ताव सीपीआई के हीरेन मुखर्जी लेकर आए थे. राहुल गांधी यह बात नहीं समझ पा रहे. संसद के सेंट्रल हाल में सावरकर की तस्वीर कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान ही लगी.
मुस्लिम वोटों को अपने पाले में लाने का खेल
जाहिर है, राहुल गांधी का सावरकर विरोध सिर्फ मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने का एक दांव भर है. इसीलिए जब महाविकास अघाड़ी की सभा में सावरकर का गीत गया गया तो राहुल गांधी चुप साध गए. परंतु इसका जवाब तो उन्हें देना ही पड़ेगा. दिल्ली से न्यूयार्क तक वे अपने सावरकर विरोध के लिए विख्यात हैं किंतु महाराष्ट्र में सावरकर के विरुद्ध मुंह तक नहीं खोलते. सच तो यह है कि सावरकर का विरोध कांग्रेस ने अभी शुरू किया है.
चूंकि महाराष्ट्र में सावरकर का विरोध संभव नहीं है, अतः पिछले चुनावों में भी राहुल गांधी सावरकर के विरोध में एक शब्द भी नहीं बोले और इस विधानसभा चुनाव के समय भी वे शांत हैं. जबकि बीजेपी पर निशाना साधते समय वे सावरकर को गद्दार और माफी-वीर कहने से वे नहीं चूकते.
राहुल गांधी पर मुकदमा भी
विनायक सावरकर पर अपनी टिप्पणियों के कारण ही वे एक मुकदमे को झेल रहे हैं. उन्होंने ब्रिटेन में ओवरसीज कांग्रेस की बैठक में सावरकर द्वारा अंग्रेजों से पैसा लेने की बात कही थी, जिसके विरोध में विनायक दामोदर सावरकर के पोते सात्यिकी सावरकर ने उनके विरुद्ध अवमानना का मुकदमा दर्ज कराया हुआ है. इसके बाद भी राहुल गांधी सावरकर के विरुद्ध बोलते ही रहते हैं. संभवतः लेफ्ट और मुस्लिम लॉबी के दबाव में कांग्रेस सावरकर का विरोध करती रहती है.
राहुल गांधी के समय यह विरोध और तीव्र हुआ है. उनकी सोच है, कि ध्रुवीकरण की राजनीति में इस तरह के बयान देकर वे मुस्लिम वोटों को अपने पाले में ले आएंगे. मगर 20 प्रतिशत मुस्लिम वोटों से बात नहीं बनेगी. इसलिए ओबीसी को लुभाने के लिए वे जाति जनगणना की बात भी करते हैं.
सदैव जाति-पात के विरोधी रहे सावरकर
यहीं राहुल गांधी भूल कर जाते हैं. क्योंकि जाति-पात के विरुद्ध विनायक सावरकर ने सबसे पहले हिंदुत्त्व का नारा दिया था. उनके हिंदुत्त्व में जाति पर ही सबसे बड़ा प्रहार है. यही कारण है कि महाराष्ट्र में सावरकर के विरुद्ध बोलने का मतलब है जन समर्थन खो देना. इसीलिए राहुल गांधी मौन हैं. सावरकर को लेकर बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य और साहित्यकार प्रेम कुमार मणि कहते हैं, सावरकर पर खूब टिप्पणियां -प्रतिटिप्पणियां और बहसें होती रहती हैं. एक तबका सावरकर को देश और समाज का शत्रु सिद्ध करने की कोशिश करता है, तो दूसरा उन्हें गांधी से दो हाथ ऊपर रख कर देखने की वकालत करता है. मैं समझता हूं, दोनों अति है और इस पर कोई विवेक टिक नहीं सकता.
‘गांधी अपनी जगह हैं और सावरकर अपनी जगह. भगत सिंह और नेहरू -अंबेडकर और सुभाष की भी अपनी जगह है. हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की कई धाराओं में इन सबका योगदान और महत्व है. मैं जब इन सब के समन्वित दृष्टिकोण से आजादी के संघर्ष को देखता हूं तब एक अलग चीज दिखती है. हमारे भारतीय समाज में सांप्रदायिकता भी थी, जातिवाद और पुरोहित-मुल्लावाद भी था, अशिक्षा थी, जमींदारों का शोषण भी था.’
हर नेता का अपना संघर्ष
प्रेम कुमार मणि के अनुसार, ‘इन सब से अनेक स्तरों पर लोग लड़ रहे थे. राजा राममोहन राय, विवियन डेरोजियो, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, जोतिबा फुले, दयानन्द , विवेकानंद, रमाबाई सबका अपना अपनी तरह का संघर्ष था. इनमें से कोई अंग्रेजों के शासनकाल में गिरफ्तार नहीं हुआ, या उन पर विरोध दर्ज नहीं किया; तो क्या इनके संघर्ष का कोई अर्थ नहीं था. और इनके मुकाबले कुंअर सिंह, पीर अली हजरत बेगम, बहादुर शाह और तात्या टोपे जैसे लोगों के सशस्त्र विरोध का ही अर्थ था. इस तरह देखने से काम नहीं चलेगा.’
‘इसी परिप्रेक्ष्य में सावरकर पर विचार करना होगा. उनके संघर्ष और दृष्टिकोण का एक अलग पक्ष है. जिन लोगों ने दक्कन में मुस्लिम प्रभुत्व के दौर को नहीं समझा है, या फिर जाट, सतनामी, सिख और मराठा केंद्रित मुगल राज विरोधी संघर्षों-आंदोलनों का अध्ययन नहीं किया है, वह सावरकर को समझने में असमर्थ होंगे.’
सावरकर को समझने को हालात समझने होंगे
मशहूर अंग्रेजी लेखक रजनी पाम दत्त अपनी किताब इंडिया टुडे में तब के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर अलग दृष्टिकोण रखा है. 1905 के बंगभंग प्रतिकार आंदोलन के दौर में ढाका में जमींदार मुसलमानों द्वारा मुस्लिम लीग का गठन हुआ. 1916 के लखनऊ सम्मेलन में सांप्रदायिक आधार पर केंद्रीय धारासभा में सीटें देने का प्रस्ताव स्वीकार हुआ. खिलाफत आंदोलन हुआ.
इन सब के बाद हिंदुत्व की राजनीति का विकास स्वाभाविक था. अंग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुसलमान शासकों का विद्रोह था. जैसे-जैसे देश में लोकतान्त्रिक भावनाएं मजबूत होने लगीं, मुसलमानों के कुलीन तबके में यह भावना उभरने लगी कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनका नहीं हिन्दुओं का राज आएगा.
इसी भावना ने अंततः पाकिस्तान का बीजारोपण किया. एक छोटे हिस्से में ही सही मुस्लिम राज होना चाहिए. हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. इस दौर में हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र का विचार उभारना अस्वाभाविक नहीं था. सावरकर इसी भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्हें इतिहास के अनुक्रम से हटाना और नकारना मुश्किल होगा. अब उन्होंने अंग्रेजों से मुआफी मांगी कि आर्थिक मदद ली, जैसी जानकारियां उनके महत्व को कम नहीं करेंगी.
अंबेडकर और भगत सिंह भी उपेक्षित रहे
कुछ लोगों ने बहुत समय तक अंबेडकर के बारे में यही प्रचारित किया कि वह एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए और ब्रिटिश सरकार के हिमायती रहे. यह गलत भी नहीं है. अंबेडकर के लिए आजादी का मतलब वह नहीं था, जो सवर्ण हिंदू या असराफ मुस्लिम के लिए था. उन्होंने दलित नजरिए से आजादी को देखा और उसकी व्याख्या की. देर से ही सही उन्हें भारत को स्वीकारना पड़ा.
यही हाल भगत सिंह का भी रहा. भगत सिंह को आजादी के बहुत समय बाद तक हमने स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना था. 2007 में उनके परिवार के लिखित निवेदन पर मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मान्यता दी और संसद परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई. तो क्या यह कहा जाएगा कि इसके लिए उन्हें एक पंजाबी प्रधानमंत्री का इंतजार करना पड़ा!
– India Samachar
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