राजस्थान की सात सीटों पर 13 नवंबर को वोट डाले जाएंगे
राजस्थान में चुनाव पास आते ही परिवारवाद शुरू हो जाता है. विधानसभा चुनाव हो या फिर लोकसभा चुनाव राजनीतिक पार्टी कई तरह के वादे अपने कार्यकर्ता और पदाधिकारी से करती है. कई तरह के बयान राजनीतिक पार्टी की ओर से जारी भी किए जाते हैं कि जो पदाधिकारी और कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर उतरकर काम कर रहा है पार्टी उसको ही उम्मीदवार बनाएगी लेकिन जैसे ही प्रत्याशियों के नाम का ऐलान होता है तो परिवारवाद शुरू हो जाता है.
पार्टी में मतभेद और मनभेद शुरू हो जाते हैं. इस बार उपचुनाव में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला. पीसीसी चीफ गोविंद सिंह डोटासरा पहले कहते हुए नजर आ रहे थे जो कार्यकर्ता जमीन स्तर से जुड़ा हुआ है उसको ही प्रत्याशी बनाया जाएगा लेकिन कार्यकर्ता को प्रत्याशी बनाना तो दूर परिवारवाद का ही खेल शुरू हो गया.
सत्ता, सियासत और परिवारवाद
राजस्थान की परिपाटी हमेशा देखने को मिलती है. चुनाव के समय परिवारवाद हावी हो जाता है और कार्यकर्ताओं को नाखुश कर दिया जाता है. पॉलिटिक्स में पार्टियों को परिवारवाद से कोई परहेज नहीं है. हां, लेकिन, यदि एक दूसरे पर बयानी तीर छोड़ने हो तो फिर परिवारवाद वाला हथियार सटीक बैठता है. ऐसी ही कुछ तस्वीर राजस्थान के उप चुनावों में भी है. जहां के चुनावी जंग में परिवार से पार्टियों ने प्रीत लगा ली है.
राजस्थान की सियासत की अगर बात करें तो राजा महाराजाओं के समय से ही परिवार वाद का खेल चलता आ रहा है. सत्ता, सियासत और ‘परिवार’ वाला वादा हमेशा देखने को मिलता है, लेकिन पूरा बहुत कम देखने को मिलता है. हर बार राजस्थान में दोनों ही प्रमुख पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व के नेता परिवारवाद की बात से इनकार करते हैं लेकिन टिकट वितरण के दौरान परिवार वाद का प्यार साफ तौर पर नजर आता है.
जंग में हो जीत, परिवार से पार्टियों ने लगाई प्रीत
चुनावी जंग में हमेशा से परिवारवाद का मद्दा बड़ा रहा है. खासकर कांग्रेस इस आरोप में हमेशा बीजेपी के निशाने पर रही है, लेकिन इस बार प्रदेश में हो रहे उपचुनाव में बीजेपी भी परिवारवाद से अछूती नहीं रही है. 7 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बीजेपी ने दो सीटों पर परिवार वाला दांव खेला, जबकि कांग्रेस ने 3 सीटों पर परिवार के सदस्यों को मैदान में उतारा है.
वहीं स्थानीय पार्टी के लिहाज से एक सीट पर चुनाव लड़ रही राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने भी अपने ही परिवार के सदस्य को टिकट थमाया है. परिवारवाद में घिरी रही कांग्रेस ने तो पहले ही साफ कर दिया था कि जो जिताऊ कैंडिडेट होगा, उसी को मैदान में उतारेंगे. फिर चाहे वह परिवार का सदस्य क्यों ना हो. राजनीतिक पार्टियों को लगता है कि परिवारवाद से ही उनकी जीत की नाव पार होगी.
परिवारवाद से लगाना चाहती पार्टियां नैया पार
बीजेपी ने किरोड़ी मीणा के भाई जगमोहन मीणा को बनाया प्रत्याशी जबकि किरोड़ी मीणा का भतीजा राजेंद्र मीणा महुआ से विधायक हैं. वहीं, कांग्रेस ने बृजेंद्र ओला के बेटे अमित ओला को टिकट दिया है. हनुमान बेनीवाल ने अपनी पत्नी को चुनाव में उतारा. हालांकि हनुमान बेनीवाल के भाई टिकट मांग रहे थे, लेकिन उन्हें जहर का घूंट पीना पड़ा और हनुमान बेनीवाल ने अपनी पत्नी को टिकट दिया.
राजस्थान के उपचुनाव में सात सीटों पर जंग हो रही है. जिसमें यदि परिवार से टिकट देने का बात की जाए तो बीजेपी ने दो और कांग्रेस ने तीन ऐसे चेहरे उतारे हैं. झुंझुनू विधानसभा सीट से एक बार फिर कांग्रेस ने ओला परिवार पर भरोसा जताते हुए विधायक से सांसद बने बृजेंद्र ओला के बेटे अमित ओला को उम्मीदवार बनाया है. इसी तरह से रामगढ़ विधानसभा सीट पर विधायक रहे दिवंगत जुबेर खान के बेटे आर्यन जुबेर खान को कांग्रेस ने टिकट दिया है.
खींवसर सीट पर बीजेपी ने खेला परिवारवाद का कार्ड
खींवसर विधानसभा सीट से 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी रहे सवाई सिंह की पत्नी रतन चौधरी पर कांग्रेस ने भरोसा जताया है. उधर, बीजेपी ने भी इस बार दो विधानसभा सीटों पर परिवारवाद का कार्ड खेला है. दौसा विधानसभा सीट पर कैबिनेट मंत्री पद से इस्तीफा दे चुके डॉक्टर किरोड़ी लाल मीणा के भाई जगमोहन मीणा को चुनाव मैदान में उतारा है, तो वही सलूंबर से विधायक रहे दिवंगत अमृतलाल मीणा की पत्नी शांता मीणा पर पार्टी दांव खेला है.
उधर, छोटे दलों में भी देखा जाए तो खींवसर में हनुमान बेनीवाल ने अपनी पत्नी को चुनाव रण में उतार दिया है. पार्टी कार्यालय में भी अक्सर चर्चा चलती है आखिर परिवारवाद का खेल कब रुकेगा. या फिर परिवारवाद की बेल अमरबेल बनी रहेगी.
(रिपोर्ट- बसंत पांडेय)
– India Samachar
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