शिबू सोरेन ने जेएमएम को झारखंड में सत्ता के शिखर तक पहुंचाया
झारखंड की सत्ता पर काबिज झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) भले ही मुख्य रूप से झारखंड में सक्रिय हो पर इस राजनीतिक दल ने पूरे देश में अपनी पहचान बना ली है. राष्ट्रीय दलों को आंख दिखाकर राजनीतिक रूप से चुनौती देने वाला झारखंड मुक्ति मोर्चा साल 1980 के विधानसभा चुनाव में पहली बार राजनीतिक रूप से जनता के बीच पहुंचा और संथाल परगना क्षेत्र के 18 में से 7 सीटों पर जीत हासिल कर खुद को क्षेत्रीय दल के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई.
साल 1980 के विधानसभा चुनाव में पहली बार साइमन मरांडी, सूरज मंडल, देवीधन बेसरा, स्टीफन मरांडी, डेविड मुर्मू, अशया चरण लाल और देवन सोरेन जैसे नेताओं ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर जीत हासिल की थी. 5 साल बाद 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में भी जेएमएम को 7 सीटों पर ही जीत मिली थी.
1990 का चुनाव बना टर्निंग प्वाइंट
हालांकि पार्टी के साल 1990 का विधानसभा चुनाव राजनीतिक रूप से टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ, जेएमएम ने संथाल परगना के 18 में से 8 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी.
वर्तमान दौर की बात करें तो झारखंड मुक्ति मोर्चा का असर झारखंड के पांचों प्रमंडल में दिखता है, हालांकि संथाल और कोल्हान को जेएमएम का गढ़ माना जाता है. जेएमएम ने साल 2019 के चुनाव में संथाल परगना की 18 में से 9 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को संथाल परगना की 4 सीटों पर जीत से ही संतोष करना पड़ा था. वहीं कांग्रेस के खाते में 5 सीटें आई थी.
कोल्हान में BJP का हो गया था सफाया
जबकि कोल्हान प्रमंडल की बात करें तो यहां पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया था. कोल्हान के 14 में से 13 सीटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन ने जबकि एक सीट पर निर्दलीय सरयू राय ने जीत दर्ज की थी.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक और अध्यक्ष शिबू सोरेन अपने स्वास्थ्य कारणों की वजह से चुनाव में सक्रिय नहीं हैं, लेकिन प्रदेश की राजनीति में “गुरुजी” का ऐसा प्रभाव है कि उनके नाम मात्र लेने से प्रत्याशी चुनाव में बंपर जीत दर्ज करते हैं.
हार के साथ हुई थी शुरुआत
ऐसे तो कहा जाता है कि शिबू सोरेन की पहचान “टुंडी” सीट से हुई थी, हालांकि वह साल 1977 में विधानसभा चुनाव तो नहीं जीत सके थे लेकिन उन्हें “दिशोम गुरु” की पदवी जरूर मिल गई. शिबू ने अपना पहला विधानसभा चुनाव टुंडी सीट से लड़ा था और वह जनता पार्टी के सत्यनारायण दुदानी से हार गए थे.
70 के दशक में शिबू सोरेन ने ‘धन कटनी’ आंदोलन के नाम से टुंडी में आदिवासियों को गोलबंद किया था, महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंका था. इस आंदोलन के बाद से ही आदिवासियों ने शिबू सोरेन को अपनाते हुए उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि दी थी. ‘दिशोम गुरु’ का मतलब देश का गुरु होता है और यह एक संथाली शब्द है.
शिबू का संथाल आना बना टर्निंग प्वाइंट
साल 1977 में मिली हार, शिबू सोरेन और संथाल परगना के लिए एक बड़ा टर्निंग प्वाइंट बना. टुंडी छोड़ शिबू सोरेन ने संथाल को अपना राजनीतिक केंद्र बनाया और संथालियों के बीच शिबू सोरेन का ऐसा जादू चला कि महज ढाई साल के बाद 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में दुमका सीट से झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जीत दर्ज कर ली. 1980 में ही दुमका सीट से शिबू सोरेन कांग्रेस के दिग्गज नेता पृथ्वीचंद्र किस्कू को हराकर पहली बार लोकसभा पहुंचे.
हालांकि 1984 में हार मिलने के बाद शिबू सोरेन ने 1985 में जामा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और चुनाव जीतकर बिहार विधानसभा पहुंचे. साल 1989 के आम चुनाव में फिर से दुमका संसदीय सीट से लड़े और चुनाव जीतकर फिर लोकसभा पहुंचे. इसके बाद दुमका सीट से ही साल 2004, 2009 और 2014 में भी जीत कर वह लोकसभा पहुंचे. वर्तमान में शिबू सोरेन राज्यसभा के सांसद हैं.
ऐसे भी कहा जाता है कि झारखंड की सत्ता संथाल परगना और कोल्हान के रास्ते आती है, इसीलिए इन दिनों केंद्रीय नेताओं की झारखंड के संथाल परगना और कोल्हान में ताबड़तोड़ सभाएं आयोजित की जा रही है. संथालियों के बीच ऐसे भी दिशोम गुरु शिबू सोरेन की पहचान, धरती पर मौजूद एक भगवान के रूप में की जाती है. शायद यही कारण है कि शिबू सोरेन और उनके परिवार पर लोगों की एक तरह से आस्था बनी हुई है.
– India Samachar
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